किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। येहि अवसर मोहि आन उबारो॥
करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥ नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे ।
अर्थ: हे प्रभु जब क्षीर सागर के मंथन में विष से भरा घड़ा निकला तो समस्त देवता व दैत्य भय से कांपने लगे (पौराणिक कथाओं के अनुसार सागर मंथन से निकला यह विष इतना खतरनाक था कि उसकी एक बूंद भी ब्रह्मांड के लिए विनाशकारी थी) आपने ही सब पर मेहर बरसाते हुए इस विष को अपने कंठ में धारण किया जिससे आपका नाम नीलकंठ हुआ।
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
शिव चालीसा - जय गिरिजा पति दीन दयाला । सदा करत सन्तन प्रतिपाला.
अर्थ: हे प्रभू आपके समान दानी और कोई नहीं है, सेवक आपकी सदा से प्रार्थना करते आए हैं। हे प्रभु आपका भेद सिर्फ आप ही जानते हैं, क्योंकि आप अनादि काल से विद्यमान हैं, shiv chalisa lyricsl आपके बारे में वर्णन नहीं किया जा सकता है, आप अकथ हैं। आपकी महिमा का गान करने में तो वेद भी समर्थ नहीं हैं।
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। येहि अवसर मोहि आन उबारो॥
भजन: शिव शंकर को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
कीन्ही दया तहं करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
जय जय जय अनन्त अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥